क्या नाबालिग मुस्लिम नवयौवना को शादी की अनुमति मिलनी चाहिए? केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट से निर्णय की मांग की


  2024-08-08 16:18:29



क्या नाबालिग मुस्लिम नवयौवना को शादी की अनुमति मिलनी चाहिए? केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट से निर्णय की मांग की

केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से अपील की है कि वह प्राथमिकता के आधार पर निर्णय करे कि क्या एक नाबालिग मुस्लिम लड़की यौवन प्राप्ति के बाद अपनी पसंद के व्यक्ति से शादी कर सकती है। यह मामला पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ है, जिसमें कहा गया था कि 15 वर्ष की उम्र के बाद मुस्लिम लड़की अपनी पसंद से शादी कर सकती है।

उच्च न्यायालय का आदेश और उसकी पृष्ठभूमि

पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने अपने एक आदेश में कहा था कि एक मुस्लिम लड़की, जो 15 वर्ष की उम्र पार कर चुकी है और यौवन प्राप्त कर चुकी है, अपनी मर्जी से शादी कर सकती है। यह आदेश एक 26 वर्षीय व्यक्ति द्वारा दायर एक हेबियस कॉर्पस याचिका पर आधारित था, जिसने अपनी 16 वर्षीय पत्नी की रिहाई की मांग की थी, जो पंचकुला के एक बाल गृह में बंद थी।

एनसीपीसीआर की याचिका

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) ने उच्च न्यायालय के इस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। NCPCR का कहना है कि इस आदेश से बाल विवाह को बढ़ावा मिलेगा, जो कि भारतीय कानून के तहत अवैध है। याचिका में यह भी कहा गया कि 18 वर्ष से कम उम्र की लड़की के साथ यौन संबंध बनाना, पोक्सो (POCSO) अधिनियम के तहत यौन उत्पीड़न माना जाएगा और इसे विवाह के वैधता के कारण नहीं बदला जा सकता।

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता का तर्क

केंद्र सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने चीफ जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ के सामने यह मामला उठाया और इस पर प्राथमिकता के आधार पर सुनवाई की मांग की। उन्होंने कहा कि विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा इस मुद्दे पर विभिन्न दृष्टिकोण अपनाए जा रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप सुप्रीम कोर्ट में कई विशेष अनुमति याचिकाएं दायर की जा रही हैं।

अदालत की स्थिति

जनवरी में, सुप्रीम कोर्ट ने सरकार और अन्य पक्षों को इस मुद्दे पर नोटिस जारी किया था। अदालत ने यह स्पष्ट किया था कि पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के आदेश को स्थगित न करने का उसका निर्णय पूर्वानुमान के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए। कोर्ट ने वरिष्ठ वकील राजशेखर राव को इस मामले में अदालत की सहायता के लिए एमिकस क्यूरी नियुक्त किया।

कानूनी और सामाजिक प्रभाव

इस मामले का न केवल कानूनी बल्कि सामाजिक प्रभाव भी व्यापक है। मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत, एक लड़की जो यौवन प्राप्त कर चुकी है, विवाह के योग्य मानी जाती है, लेकिन भारतीय कानून के तहत, 18 वर्ष से कम उम्र के किसी भी व्यक्ति के साथ विवाह को अवैध माना जाता है। इस कानूनी विरोधाभास के परिणामस्वरूप विभिन्न उच्च न्यायालयों में अलग-अलग निर्णय आ रहे हैं।

विभिन्न न्यायालयों के निर्णय

विभिन्न न्यायालयों ने इस मुद्दे पर अलग-अलग दृष्टिकोण अपनाए हैं। कुछ न्यायालयों ने मुस्लिम पर्सनल लॉ के आधार पर यौवन प्राप्ति के बाद विवाह को मान्यता दी है, जबकि अन्य ने इसे भारतीय कानून के तहत अवैध माना है। इस मुद्दे पर एक सुसंगत और एकीकृत दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जिसे सुप्रीम कोर्ट का निर्णय पूरा कर सकता है।

एनसीपीसीआर की अपील का महत्व

एनसीपीसीआर का कहना है कि उच्च न्यायालय ने इस तथ्य को नजरअंदाज किया कि 18 वर्ष से कम उम्र की लड़की के साथ यौन संबंध बनाना पोक्सो अधिनियम के तहत यौन उत्पीड़न माना जाएगा। यह कानूनी स्थिति विवाह की वैधता के कारण नहीं बदली जा सकती। एनसीपीसीआर ने यह भी कहा कि उच्च न्यायालय का आदेश बाल विवाह को बढ़ावा देगा, जो कि भारतीय कानून के तहत अवैध है।

सुप्रीम कोर्ट की प्राथमिकता

चीफ जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता को आश्वासन दिया कि वह इस मामले को प्राथमिकता के आधार पर सुनवाई के लिए सूचीबद्ध करेंगे। यह मामला कानूनी दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह विभिन्न न्यायालयों द्वारा अलग-अलग निर्णयों को एकीकृत करने और एक सुसंगत कानूनी दृष्टिकोण स्थापित करने का अवसर प्रदान करता है।

पिछले वर्षों की घटनाएं

पिछले कुछ वर्षों में, भारत में बाल विवाह के खिलाफ कानूनी लड़ाई में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है। पोक्सो अधिनियम के लागू होने के बाद, 18 वर्ष से कम उम्र की लड़की के साथ यौन संबंध बनाना यौन उत्पीड़न माना जाता है। इस अधिनियम ने बाल विवाह को कानूनी दृष्टिकोण से और भी अधिक विवादास्पद बना दिया है। कई गैर सरकारी संगठन और सामाजिक कार्यकर्ता इस मुद्दे पर जागरूकता फैलाने और बाल विवाह को समाप्त करने के लिए काम कर रहे हैं।

निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न केवल कानूनी दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण होगा, बल्कि यह समाज में बाल विवाह के खिलाफ जागरूकता फैलाने और इसे समाप्त करने के प्रयासों को भी समर्थन देगा। मुस्लिम पर्सनल लॉ और भारतीय कानून के बीच के इस विरोधाभास को समाप्त करने के लिए सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आवश्यक है।


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