जाति जनगणना, ऐतिहासिक फैसला! सामाजिक न्याय या नई चुनौतियां? मोदी सरकार के फैसले के मायने
के कुमार आहूजा कान्ता आहूजा 2025-05-04 17:59:46

केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने जाति जनगणना को मंजूरी दे दी है। इस फैसले के बाद, माना जा रहा है कि भारत में आरक्षण और सामाजिक न्याय से जुड़े कई पहलुओं पर बड़ा असर पड़ेगा। यह एक ऐसा फैसला है जिसकी मांग पिछले कई सालों से की जा रही थी। जाति जनगणना के आंकड़ों के आने के बाद, आरक्षण की 50% सीमा में बदलाव और संसद-विधानसभाओं में प्रतिनिधित्व जैसे मुद्दों पर बहस तेज होने की संभावना है। हालांकि, कुछ लोगों का मानना है कि इससे समाज में विभाजन भी बढ़ सकता है।
आरक्षण पर 50% की सीमा का मुद्दा
सुप्रीम कोर्ट के नौ न्यायाधीशों की संविधानिक पीठ ने 1992 में इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार मामले में आरक्षण की अधिकतम सीमा 50% तय की थी। अदालत ने कहा था कि इससे ज्यादा आरक्षण संविधान की मूल भावना के खिलाफ होगा। अब जाति जनगणना के आंकड़े आने के बाद, ओबीसी जातियां अपनी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण की मांग कर सकती हैं। इससे सरकार पर आरक्षण की सीमा को बढ़ाने या खत्म करने का दबाव बढ़ सकता है, ताकि ओबीसी जातियों को उनकी जनसंख्या के अनुसार आरक्षण दिया जा सके।
संसद और विधानसभाओं में बदलाव
जाति जनगणना के बाद संसद और विधानसभाओं में प्रतिनिधित्व का स्वरूप भी बदल सकता है। जिन जातियों की संख्या अधिक होगी, वे एकजुट होकर चुनावों में अधिक सीटों की मांग कर सकती हैं। 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद ओबीसी जातियों का राजनीतिक ध्रुवीकरण देखा गया था। समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल जैसे दलों का उदय इसी का परिणाम था। कांग्रेस भी अपने खोए हुए जनाधार को वापस पाने के लिए जाति जनगणना का समर्थन कर रही है।
ओबीसी आरक्षण का इतिहास और वर्तमान स्थिति
भारत में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की संख्या सबसे अधिक मानी जाती है। 1931 की जनगणना में पिछड़ी जातियों की आबादी 52% से अधिक बताई गई थी। मंडल आयोग ने भी ओबीसी की आबादी 52% मानी थी और उन्हें 27% आरक्षण देने की सिफारिश की थी। बिहार के हालिया जाति सर्वेक्षण में, ओबीसी की आबादी 63.13% पाई गई है। एससी/एसटी को आरक्षण देते समय उनकी जनसंख्या को ध्यान में रखा जाता है, लेकिन ओबीसी आरक्षण के मामले में ऐसा नहीं है। जाति जनगणना से यह स्पष्ट होगा कि किस जाति की कितनी आबादी है, जिससे ओबीसी जातियां अपनी जनसंख्या के हिसाब से आरक्षण की मांग कर सकती हैं।
जाति जनगणना के फायदे और नुकसान
जाति जनगणना से सामाजिक असमानता को दूर करने और संसाधनों का समान वितरण सुनिश्चित करने में मदद मिल सकती है। इससे सरकार वंचित समूहों के लिए बेहतर नीतियां बना पाएगी। हालांकि, इसके कुछ नुकसान भी हैं। इससे समाज में नए विभाजन पैदा हो सकते हैं और जातिगत भेदभाव बढ़ सकता है। 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के समय भी देश में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए थे।
बहरहाल, जाति जनगणना एक जटिल मुद्दा है, जिसके फायदे और नुकसान दोनों हैं। सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि जनगणना के आंकड़े आने के बाद समाज में सौहार्द बना रहे और किसी भी जाति के साथ अन्याय न हो।
अस्वीकरण:
यह लेख विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जानकारी और प्रस्तावित विश्लेषण पर आधारित है। इसमें व्यक्त किए गए विचार और निष्कर्ष लेखक के व्यक्तिगत मत हैं और इन्हें आधिकारिक सरकारी नीति या अंतिम सत्य के रूप में नहीं माना जाना चाहिए। जाति जनगणना एक संवेदनशील और जटिल विषय है, और इस लेख का उद्देश्य केवल इस मुद्दे पर एक निष्पक्ष दृष्टिकोण प्रस्तुत करना है। जनगणना के वास्तविक आंकड़े और उनके सामाजिक-राजनीतिक प्रभाव भिन्न हो सकते हैं। पाठक से अनुरोध है कि वे इस विषय पर आगे की जानकारी के लिए आधिकारिक सरकारी दस्तावेजों और विश्वसनीय स्रोतों का संदर्भ लें। यह लेख किसी भी जाति, समुदाय या राजनीतिक दल का समर्थन या विरोध नहीं करता है।