केरल हाई कोर्ट का फैसला - पोस्टपार्टम डिप्रेशन से पीड़ित मां को नहीं खोना पड़ेगा अपने बच्चे का हक


के कुमार आहूजा कान्ता आहूजा  2024-11-16 06:02:10



 

केरल हाई कोर्ट ने हाल ही में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया जिसमें एक नवजात के पिता को अस्थायी तौर पर मिली कस्टडी को खारिज कर दिया गया। कोर्ट का मानना था कि एक मां के पोस्टपार्टम डिप्रेशन जैसी अस्थायी स्थिति के आधार पर उससे बच्चे की स्थायी देखभाल का अधिकार छीनना उचित नहीं है। यह फैसला ऐसे मामलों में न्याय की नई मिसाल पेश करता है।

मामला: बच्चे की स्थायी कस्टडी का विवाद

मामला एक वर्ष के शिशु की स्थायी कस्टडी का है, जिसमें बच्चे के पिता ने तर्क दिया कि मां के मानसिक स्वास्थ्य, विशेषकर पोस्टपार्टम डिप्रेशन, से वह बच्चे की देखभाल करने में अक्षम हैं। परिवार अदालत ने कुछ पुराने मेडिकल रिकॉर्ड्स के आधार पर पिता को स्थायी कस्टडी दे दी थी।

मां की अपील और उसकी ममता का पक्ष

मां ने इस आदेश को हाई कोर्ट में चुनौती दी और कहा कि पोस्टपार्टम डिप्रेशन का दावा अब उनकी वर्तमान मानसिक स्थिति को नहीं दर्शाता है। मां का कहना था कि शिशु अभी भी स्तनपान कर रहा है और पिता के साथ जाने के लिए अनिच्छुक है, जिससे उसकी भावनात्मक स्थिति पर बुरा असर पड़ेगा।

हाई कोर्ट की टिप्पणी और मेडिकल जांच

मां की बात सुनते हुए, केरल हाई कोर्ट ने उसे मेडिकल जांच के लिए स्वयं आगे आने का मौका दिया। मेडिकल कॉलेज एर्नाकुलम की जांच में यह पाया गया कि मां के मानसिक स्वास्थ्य में कोई ऐसी कमी नहीं है जिससे वह अपने बच्चे की उचित देखभाल नहीं कर सके। इस रिपोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि बच्चे की मां को उसके मानसिक स्वास्थ्य के कारण असमर्थ मानना गलत था।

कोर्ट का फैसला: माता-पिता के अधिकारों और कर्तव्यों का संतुलन

हाई कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि परिवार अदालत ने पुराने और अपर्याप्त साक्ष्यों पर भरोसा करते हुए मां की योग्यता को नज़रअंदाज़ किया। कोर्ट ने इस मामले की फिर से सुनवाई का आदेश दिया ताकि माता-पिता दोनों की स्थिति और बच्चे की भलाई को ध्यान में रखते हुए निष्पक्ष निर्णय हो सके।

महत्वपूर्ण बयान

जस्टिस देवन रामचंद्रन और जस्टिस एमबी स्नेहलता ने कहा, "पोस्टपार्टम डिप्रेशन एक सामान्य और अस्थायी स्थिति है, जिसे स्थायी मानते हुए फैसले नहीं किए जा सकते। यह मानसिक स्थिति स्थायी नहीं होती और उचित इलाज से जल्दी ठीक हो सकती है।"

यह मामला मातृत्व और उसके मानसिक स्वास्थ्य के प्रति समाज में एक नए दृष्टिकोण को जन्म देता है। हाई कोर्ट ने यह साबित किया कि किसी भी मां की अस्थायी मानसिक स्थिति के आधार पर उसे उसके बच्चे से दूर रखना न केवल अन्याय है बल्कि यह मां की ममता और उसके देखभाल के अधिकार का भी हनन है।


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