ज़ख़्म सहने की आदत हो गई है फ़िलहाल कोई नया ज़ख़्म तो नहीं मिला लेकिन लिखने से अपने आप को रोक भी नहीं सका।
के कुमार आहूजा 2024-11-11 14:12:45
कलम भी सोच में है.. हर रोज़ वही दर्द क्या लिखू, ए- ज़िन्दगी! तू नया सा ज़ख़्म दे फिर. . . ये रुकी सी कलम मुझे रास नहीं आती।
हालाँकि ज़ख़्म सहने की आदत हो गई है फ़िलहाल कोई नया ज़ख़्म तो नहीं मिला लेकिन लिखने से अपने आप को रोक भी नहीं सका। तलत महमूद का यह गाना समीचीन है— कि ए मेरे दिल कहीं ओर चल, ग़म की दुनिया से जी भर गया, ढूँढ ले अब कोई घर नया। वास्तव में अब जीवन बहुत कठिन हो गया हैं उमर के इस पड़ाव में बीमारी भी पीछा नहीं छोड़ती। दूसरी और जीवन से जुड़ी कई परेशानियाँ काफ़ी तकलीफ़ देती है। मसलन महंगाई को लीजिए जब आप आलू- प्याज की बोरे घर में रखने में सक्षम थे अब आप किलो- आधा किलो तक सीमित हो गये है। आलू- टमाटर- प्याज- लहुसन सबने हर घर की रोसोई का बजट बिगाड़ रखा हैं। तेल- घी और अन्य खाद्य पदार्थ एवम् सब्जिया- फल फ़्रूट आम आदमी की पहुँच की बाहर हो रहे है। सब के भाव आसमान को छू रहे है सरकार ने महंगाई भत्ता बढ़ाकर कर्मचारियों की थोड़ी उदासी दूर की है लेकिन सरकारी कर्मचारी के अलावा इस जहां में और लोग भी तो है। वे महंगाई का कैसे सामना करेंगे ? महँगाई ने लोगो की दिवाली भी फीकी कर दी। कुछेक अमीर लोगो ने ज्वैलरी- वाहन ख़रीद कर दिवाली का लुत्फ़ उठाया होगा बाक़ी लोगो ने तो दिये जलाने में भी कंजूसी बरती। क्योंकि तेल के भाव भी आसमान को छूने लगे थे। और दिया तेल से जलता है। मिठाइयाँ भी आम आदमी की पहुँच के बाहर रही। हालाँकि मिलावटी मावा- नक़ली घी, दूध, पनीर खूब बिका। कुछ लोग धनवान बने तो कुछ लोग बीमार। आश्चर्य होता है कि मिलावट और भावों पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं रहा। बेख़ोप होकर व्यापारी मिलावट का धन्धा करते रहे और क़ानून की पालना करवाने वाले अपनी जेबें भरते रहे। हर विभाग का अदने से लेकर उच्च स्तर का अधिकारी अतिरिक्त इनकम कमाने में मशगूल रहा। रही बात राजनीति की, राजनीति में कोई भी व्यक्ति देश सेवा करने नहीं आता। सब ख़ुद के रूतबे और सात पीढ़ी का इन्तज़ाम करने आते हैं। सही मायने में राजनीति एक ज़हरीला तालाब है जिसमे एक से बढ़कर एक ज़हरीले जीव- जन्तु पनपते है। देखा जाय तो देश का पूरा सिस्टम ही बिगड़ चुका है। चारो और भृष्टाचार व्याप्त हैं। लूट- पाट का कारोबार खुले- आम चल रहा है। किसी के मन में क़ानून का कोई भय नहीं रहा। सच तो कोई बोलता ही नहीं है। सही मायने में इस दुनिया में सबसे कठिन काम है सत्य बोलना और सबसे सरल काम हैं चापलूसी करना। चापलूसी से यह देश चल रहा है। शायद इसीलिए यस सर, यस सर करते करते पूरा जीवन हम गुज़ार देते है और स्वयं को गौरवान्नित महसूस करते है। और इधर एक हम हैं कि हमने झूठी हमदर्दी कभी नहीं दी किसी को , जिसके लिये कुछ कर सकते थे दिल से किया। परखने वाले बहुत मिले मुझे, काश कोई समझने वाला भी मिला होता। जब हम यह कहते है कि जिन पर लूटा चुका था मैं दुनिया की दोलते, उन वारिसो ने मुझको कफ़न भी नाप कर दिया। तो गलत नहीं कहते। ए ज़िन्दगी अब तेरा एतबार न रहा। लेकिन फिर एक गीत की पंक्ति याद आती हैं — तेरा रामजी करेंगे बेड़ा पार, उदासी मन काहे को करे। जिससे एक नई ऊर्जा मिलती हैं ओर फिर कानो में मी एक मधुर आवाज़ गूंजती है - ज़िन्दगी एक सफ़र हैं सुहाना, हर पल में छिपा है कोई अफ़साना। कभी हँसी हैं, कभी आँसुओ की धारा। ज़िन्दगी एक सफ़र है सुहाना। मुस्कुराओ तब भी जब ज़िन्दगी उदास होने की वजह दे रही हो, ज़िन्दगी को भी पता चले कि तुम सिर्फ़ थके हो, हारें नहीं। ———मनोहर चावला चिंतक ,विचारक, लेखक, संपादक, पूर्व मनोहर चावला बीकानेर एक्सप्रेस