बुंदेलखंड की अनोखी परंपरा: सदियों पुरानी लठमार दिवाली में दिखी वीरता और भाईचारे की झलक


के कुमार आहूजा  2024-11-04 11:12:13



 

♦ महोबा में दीपावली के पर्व पर उमड़ा उल्लास, लठमार दिवाली में लोगों ने दिखाई युद्ध कला

बुंदेलखंड में हर साल मनाई जाने वाली ‘लठमार दिवाली’ की परंपरा आज भी द्वापर युग की स्मृतियों को ताजा करती है। महोबा, हमीरपुर, और बांदा समेत विभिन्न जिलों में मनाया जाने वाला यह पर्व न केवल वीरता और युद्ध कौशल का प्रदर्शन है, बल्कि इसमें क्षेत्र के हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की झलक भी दिखती है। इस परंपरा में गांव के लोग ढोलक की थाप पर लोक नृत्य के साथ-साथ लाठी डंडों का प्रदर्शन करते हुए एक अनोखे उत्साह का परिचय देते हैं।

द्वापर युग से जारी परंपरा: श्रीकृष्ण से प्रेरित

धार्मिक मान्यता के अनुसार, इस परंपरा का आरंभ द्वापर युग में हुआ था जब भगवान श्रीकृष्ण ने इंद्र देव के प्रकोप से बृजवासियों की रक्षा के लिए गोवर्धन पर्वत उठाया था। विजय के इस जश्न के रूप में ब्रजवासियों ने दिवाली नृत्य किया था। यही कला बुंदेलखंड के विभिन्न जिलों में ‘लठमार दिवाली’ के रूप में जीवंत हो उठती है। महोबा से लेकर चित्रकूट तक हर वर्ष दीपावली पर्व के समय युवा और बुजुर्ग टोली बनाकर आत्मरक्षा और युद्ध कला का प्रदर्शन करते हैं, जिसमें सैकड़ों लोग शामिल होते हैं और हजारों लोग इस अद्भुत परंपरा को देखने आते हैं।

ढोलक की थाप पर युद्ध कौशल का प्रदर्शन

लठमार दिवाली के दौरान लाठी डंडों से सजी टोलियां ढोलक की थाप पर लोक नृत्य करती हैं और एक-दूसरे पर लाठी से प्रहार करती हैं। बुंदेली वेशभूषा में रंगे लोग जब अपने हाथों में मजबूत लाठी लेकर एक-दूसरे पर प्रहार करते हैं, तो यह दृश्य किसी युद्ध के मैदान का अनुभव कराता है। स्थानीय लोग बताते हैं कि दिवाली से पहले और बाद में एक सप्ताह तक, गांवों के विभिन्न धार्मिक स्थानों पर लोग पूजा के बाद इस परंपरा को निभाते हैं।

भाईचारे की मिसाल: हिंदू-मुस्लिम समुदाय का संगठित उत्सव

इस परंपरा में हिंदू-मुस्लिम भाईचारे का सुंदर उदाहरण भी देखने को मिलता है। अकरम खान जैसे कई मुस्लिम परिवार इस परंपरा का हिस्सा बनते हैं। अकरम खान कहते हैं कि उन्होंने बचपन से ही अपने गुरु लखनलाल यादव के साथ इस परंपरा में हिस्सा लिया और आज उनका बेटा अफसार भी इस आयोजन का हिस्सा बनता है। यह दर्शाता है कि बुंदेलखंड में हिंदू-मुस्लिम समुदाय कैसे मिलकर इस परंपरा का उत्सव मनाता है और सामाजिक एकता का संदेश देता है।

नई पीढ़ी को सिखाई जा रही आत्मरक्षा की कला

लठमार दिवाली केवल एक धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि नई पीढ़ी को आत्मरक्षा की कला सिखाने का माध्यम भी है। इस परंपरा में बच्चों को बचपन से ही इस कला की शिक्षा दी जाती है। इस दौरान गांव के बुजुर्ग और युवा न केवल लोक नृत्य में भाग लेते हैं बल्कि बच्चों को आत्मरक्षा और युद्ध कौशल की बारीकियों से भी परिचित कराते हैं। बच्चों का जोश और उत्साह देखकर यह स्पष्ट होता है कि आने वाले समय में भी यह परंपरा जीवित रहेगी और बुंदेलखंड की सभ्यता का परिचय देती रहेगी।

क्षेत्रीय पहचान और ऐतिहासिक धरोहर की सुरक्षा

बरसाने की लठमार होली की तरह बुंदेलखंड की लठमार दिवाली भी अपनी क्षेत्रीय विशेषताओं और सभ्यता को संजोए हुए है। लाल, हरे, नीले, पीले रंगों की वेशभूषा में सज्जित ये लोग जब लाठी लेकर सड़कों पर उतरते हैं तो यह न केवल उत्सव का प्रतीक होता है बल्कि बुंदेलखंड की सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित रखने का भी संकेत देता है। इस परंपरा में लोग आपसी भाईचारे और सामाजिक सहयोग का संदेश भी देते हैं।


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