पैसा तो वेश्या भी कमाती है पर मेरा मक़सद देश सेवा और मिशनरी पत्रकारिता से
के कुमार आहूजा 2024-10-29 07:37:51
शौक़ से निकालिए नुक़्स मेरे किरदार में, आप नहीं होंगे तो मुझे तराशेगा कौन ?
जीवन के युवा अवस्था में अखबारबाज़ी का आनन्द लेते रहे। धीरे धीरे अपने पत्र बीकानेर एक्सप्रेस के सम्पादन के साथ दैनिक जलते दीप जोधपुर- दे. न्याय अजमेर, और हिंदुस्थान समाचार के संवाददाता बन गये। पत्रकार दोस्तों का ग्रुप बन गया। भवानी भाई- अभय प्रकाश भटनागर- शुभु पटवा , ख़ुशाल रंगा- तिलक जोशी हमारी अपनी मण्डली थी। चवन्नी चल रही थी।
बेख़ौप होकर हम पत्रकारिता करते। बहुत अच्छे अच्छे सवाल वीआईपी से पूछने के लिए तैयार करते। लेकिन पीआरओ ऑफिस का सहयोग हमे नहीं मिल रहा था। एलहेन्स नाम के पीआरओ हमको तवज्जो नहीं देते थे। वे हमेशा बड़े पत्रकारों को गाड़ी में बैठाकर कवरेज कराने ले जाते। हम टापते रह जाते। एक दिन विरोध दर्शाते हुए हमने उन्हें कहा कि पीआरओ का इतना ग़ुरूर भी ठीक नहीं। हम भी पीआरओ बन सकते है। उन्होंने कहा कि पहले अपना चेहरा देखो। लेकिन शायद ईश्वर ने हमारी सुन ली। कुछ दिनों बाद आरपीएस से पीआरओ की वेकेंसी निकली, हमने भी एपलाई किया , एग्जाम दिया और फिर इंटरव्यू दिया और मेरिट में तीसरे नम्बर पर स्लेक्शन हो गया। इंटरव्यू में मेम्बरान ने मेरे अख़बार को देखकर प्रशंसा करते हुए पूछा— जब तुम इतना अच्छा अख़बार निकाल सकते हो तो ब्लिट्ज की तरह पैसा क्यों नहीं कमाते ? मैंने निर्भीकतापूर्वक जवाब दिया कि पैसा तो वेश्या भी कमाती है पर मेरा मक़सद देश सेवा और मिशनरी पत्रकारिता से है। सदस्य प्रभावित हुये। मेरिट में तीसरा स्थान रहा। ट्रेनिंग के लिए दिल्ली भेजा गया। नार्थ एवेन्यु नई दिल्ली में इंस्टिट्यूट ऑफ़ मास क्मूनिकेशन में तीन माह की ट्रेनिंग दी गई। इन्दिरा गांधी के पीए रहे शारदा प्रशाद जी ने हमे पत्रकारिताऔर जनसम्पर्क की बारीकियाँ समझाई। जो आज पीआरओ की नहीं बताई जाती। पहली पोस्टिंग सीकर में हुई, फिर बीकानेर— यहाँ पता चला कि एलहेन्स लाइब्रेनियन है और उसके पास पीआरओ का चार्ज है। मैंने उनसे चार्ज लिया और उन्हें नमस्ते की। वे भी लम्बी छुट्टी लेकर कही चले गये। ख़ैर यहाँ जनसम्पर्क सेवा के साथ पुराने पत्रकार मित्रों के बीच समय गुजरने लगा। एक बार तो बीकानेर के तीस पत्रकार मित्रों को पूरी राजस्थान नहर का अवलोकन करवाया। ठीक हरिके बैराज से लेकर मसीदा वाली हेड होते हुवे नाचना - जैसलमेर तक दस दिनों की वीआईपी अवस्मरणीय यात्रा पत्रकार बंधु आज तक भूल नहीं पाए। एक बार विधायिका कांता खतुरिया के कहने पर निदेशक महोदय ने मुझे जयपुर बुलाकर राजस्थान विकास प्रदर्शनी में सहयोग देने हेतु आदेश दिये। इंदिरा गांधी को प्रदर्शनी देखने आना था। साथ में दो सहयोगी ईश्वर माथुर और राजू के साथ प्रदर्शनी व्यय हेतु ५० हज़ार रू स्वीकृत किये। ईश्वर और राजू ने मेहनत करके कांग्रेस नेत्रियों से नलिनी और ज्योति से साडिया लाकर पेवेलियन को ऐसा सजाया कि लोग वाह- वाह कर उठे स्वयं इन्दिरा गांधी हमारे विंग को देखकर १० मिनट तक वहाँ रुकी रही और राजस्थान के स्वन्त्रता सेनानियों के चित्रों की झलक को देखकर इन्दिरा जी ने काफ़ी तारीफ़ की। ख़ैर प्रदर्शनी समाप्त होने के बाद निदेशक जी को हिसाब देते हुये -४० हज़ार रू. वापिस लोटाये और खूब डाँट खाई। उन्होंने कहा कि बाक़ी अधिकारियों ने अतिरिक्त बजट लिया है एक तुम हो कि दिया हुआ पैसा खर्च नहीं कर पाये। लेकिन बेईमानी से हम कोसो दूर थे। ख़ैर डाँट खाकर हम बीकानेर लौटे और अपने दो एपीआरओ बालमुकंद ओझा और किशन कुमार व्यास के सहयोग से अपनी ड्यूटी भली- भाँति निभाते रहे। अच्छा समय गुजर रहा था लेकिन ईश्वर को कुछ और ही मंज़ूर था। महबूब अली की मीठी शरारत और भाई के भोलेपन से बीकानेर एक्सप्रेस में एक सच्ची घटना छपने से यहाँ के अपने दोस्त मंत्री की नराज़गी मोल ले ली और फिर उनकी और से चली बदले की आग । अपने हुवें ताबड़- तोर ट्रांसफ़र और पिताश्री के व्यवसाय पर छापे। लड़ाई दिये और तूफ़ान की थी । लेकिन दिया फड़फड़ाता रहा, बुझा नहीं अपितु उसकी लो और तेज होती गई। मेरी गलती कहाँ रही, मुझे नहीं पता? फिर भी मैं आप सबसे कहता हूँ कि — शौक़ से निकालिए नुक़्स मेरे किरदार में, आप नहीं होंगे तो मुझे तराशेगा कौन ? (पैसा तो वेश्या भी कमाती है पर मेरा मक़सद देश सेवा और मिशनरी पत्रकारिता से) बीकानेर एक्सप्रेस संपादक, विचारक ,चिंतक, लेखक पूर्व पी आर ओ——- मनोहर चावला