सुप्रीम कोर्ट ने कहा: धर्मनिरपेक्षता संविधान के मूल ढांचे का अभिन्न अंग


के कुमार आहूजा  2024-10-22 15:56:57



 

सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि 'धर्मनिरपेक्षता' भारतीय संविधान के मूल ढांचे का अभिन्न हिस्सा है और इसे संशोधित नहीं किया जा सकता है। यह सुनवाई उस याचिका के संदर्भ में हुई जिसमें संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों को शामिल करने को चुनौती दी गई है। यह याचिका वरिष्ठ बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी, बलराम सिंह और अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय द्वारा दायर की गई है।

सुनवाई का आरंभिक संदर्भ

इस मामले की सुनवाई जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस संजय कुमार की बेंच के समक्ष हुई। जस्टिस खन्ना ने कहा कि पहले ही कई फैसलों में स्पष्ट किया जा चुका है कि धर्मनिरपेक्षता संविधान का मूल ढांचा है और इसे किसी भी संशोधन के तहत बदला नहीं जा सकता। उन्होंने जोर देते हुए कहा कि "अधिकारों और समानता की बात हो या फिर प्रस्तावना में उल्लिखित बंधुता का जिक्र हो, धर्मनिरपेक्षता संविधान का एक मौलिक तत्व है।"

संविधान के मूल सिद्धांतों की रक्षा

सुप्रीम कोर्ट ने अपने बयान में कहा कि जब संविधान का मसौदा तैयार किया जा रहा था, तब हम केवल फ्रेंच मॉडल को देख रहे थे, लेकिन भारत ने इसे एक अलग ढंग से विकसित किया। जस्टिस खन्ना ने कहा कि भारत में अधिकारों को संतुलित करके एक अनूठा तरीका अपनाया गया है, जो धर्मनिरपेक्षता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को एक साथ जोड़ता है।

सुब्रमण्यम स्वामी का तर्क

सुब्रमण्यम स्वामी ने इस दौरान प्रस्तावना में दिए गए तारीख, 26 नवंबर 1949, का जिक्र करते हुए कहा कि जो परिवर्तन किए गए हैं, वे उस तारीख से मेल नहीं खाते। उन्होंने इसे प्रीएंबल' के दो हिस्सों में विभाजित करने का प्रस्ताव रखा: एक जिसमें तारीख का उल्लेख हो और दूसरा जिसमें नए परिवर्धन हों।

धर्मनिरपेक्षता पर चर्चा

बेंच ने याचिकाकर्ताओं के वकीलों से कहा कि इस पर कई बार बहस हो चुकी है और अदालतों ने बार-बार धर्मनिरपेक्षता को संविधान का मूल ढांचा बताया है। जस्टिस खन्ना ने एक याचिकाकर्ता के वकील से पूछा, "क्या आप नहीं चाहते कि भारत धर्मनिरपेक्ष रहे?" इस पर वकील विष्णु शंकर जैन ने जवाब दिया कि उनके मुवक्किल केवल इस संशोधन को चुनौती दे रहे हैं, भारत की धर्मनिरपेक्षता को नहीं।

समाजवाद और व्यक्तिगत स्वतंत्रता

वकील जैन ने यह भी तर्क दिया कि संविधान में 1976 के 42वें संशोधन के दौरान 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों को जोड़ा गया, जो कभी संसद में बहस का विषय नहीं बने। हालांकि, बेंच ने यह स्पष्ट किया कि इन शब्दों की अलग-अलग व्याख्याएं हो सकती हैं और आज भी संविधान में इन शब्दों का महत्त्व बरकरार है।

फैसले की ओर अग्रसर

इस मामले की अगली सुनवाई 18 नवंबर के सप्ताह में निर्धारित की गई है। बेंच ने याचिकाकर्ताओं से सभी प्रासंगिक दस्तावेज जमा करने को कहा ताकि अदालत इनका विश्लेषण कर सके।

इस सुनवाई ने संविधान में धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जैसे प्रमुख तत्वों पर एक बार फिर बहस को जन्म दिया है, जो भारतीय लोकतंत्र के लिए महत्वपूर्ण हैं।


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