दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जी.एन. साईंबाबा का निधन: नक्सली लिंक के आरोपों से लेकर कानूनी जंग तक
के कुमार आहूजा 2024-10-14 19:04:28
दिल्ली यूनिवर्सिटी के पूर्व प्रोफेसर जी.एन. साईंबाबा का शनिवार, 12 अक्टूबर को हैदराबाद के निजाम इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेस (NIMS) में निधन हो गया। वे 57 वर्ष के थे और पोस्ट-ऑपरेटिव जटिलताओं की वजह से उनका निधन हुआ। साईंबाबा को नक्सली लिंक के आरोप में गिरफ्तार किया गया था और वर्षों तक कानूनी लड़ाई लड़ने के बाद इस साल मार्च में उन्हें बरी किया गया था। आइए जानते हैं उनकी जिंदगी और कानूनी संघर्ष की पूरी कहानी।
जी. एन. साईंबाबा की जिंदगी और संघर्ष:
जी. एन. साईंबाबा बचपन से ही विकलांग थे और व्हीलचेयर पर जीवन यापन कर रहे थे। पांच साल की उम्र में पोलियो ने उन्हें हमेशा के लिए अपाहिज बना दिया। साईंबाबा का जीवन कठिनाइयों से भरा रहा, लेकिन शिक्षा की प्रति उनकी लगन ने उन्हें दिल्ली यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी के प्रोफेसर के रूप में पहचान दिलाई। उन्होंने 2003 में दिल्ली यूनिवर्सिटी के राम लाल आनंद कॉलेज में पढ़ाना शुरू किया। हालांकि, 2014 में नक्सली लिंक के आरोपों के चलते उनकी गिरफ्तारी के बाद उन्हें निलंबित कर दिया गया था।
नक्सली लिंक और कानूनी जंग:
2014 में महाराष्ट्र पुलिस ने जी. एन. साईंबाबा को नक्सली संगठनों के साथ कथित संबंधों के आरोप में गिरफ्तार किया था। उन पर UAPA (Unlawful Activities Prevention Act) के तहत देशविरोधी गतिविधियों में शामिल होने का आरोप लगाया गया। यह गिरफ्तारी काफी विवादित रही और साईंबाबा ने आरोपों का कड़ा विरोध किया।
2017 में महाराष्ट्र की एक सत्र अदालत ने उन्हें और पांच अन्य लोगों को दोषी ठहराते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई। उन पर नक्सलियों के साथ मिलकर देश के खिलाफ साजिश रचने का आरोप था। हालांकि, मार्च 2024 में नागपुर हाईकोर्ट ने उन्हें सभी आरोपों से बरी कर दिया। अदालत ने पाया कि अभियोजन पक्ष उनके खिलाफ आरोपों को साबित करने में विफल रहा।
सकारात्मक सोच:
जेल से रिहा होने के बाद Outlook को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने लोगों से अपील की थी, "इस फासीवादी अंधेरे समय में हमें विचारों, धैर्य और आशा की ज़रूरत है।" उनकी किताब 'व्हाई डू यू फियर माई वे सो मच? पोएम्स एंड लेटर्स फ्रॉम प्रिज़न' में भी उन्होंने जेल में बिताए अपने दिनों की यादो के साथ-साथ नकारात्मक माहौल में भी सकारात्मक रहने के विभिन्न पहलुओं को बेहतरीन ढंग से समझाया है।
जेल में बिताए गए कठिन दिन:
साईंबाबा ने जेल में बिताए दिनों का दर्दनाक अनुभव भी साझा किया था। उन्होंने कहा था कि जेल के अंदर उनकी स्थिति बेहद खराब थी, क्योंकि व्हीलचेयर से वह खुद से अपनी ज़रूरतें पूरी नहीं कर सकते थे। उनके सेल में पहुंचने और बुनियादी सुविधाओं तक उनकी पहुँच मुश्किल थी।
जेल में रहते हुए उन्हें अपनी मां के निधन पर भी पेरोल नहीं मिला, जिससे वह अपनी मां के अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हो पाए। इसका उन्हें गहरा दुख था, और उन्होंने इसे अपने जीवन का सबसे कठिन अनुभव बताया।
आखिरी वक्त और निधन:
जी. एन. साईंबाबा को कुछ दिनों पहले तबीयत बिगड़ने के बाद NIMS अस्पताल में भर्ती कराया गया था। शनिवार शाम को उन्हें दिल का दौरा पड़ा और अस्पताल ने 8:30 बजे उन्हें मृत घोषित कर दिया। उनके निधन से न केवल शिक्षाविदों में, बल्कि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं में भी शोक की लहर दौड़ गई।
साईंबाबा का कानूनी और सामाजिक योगदान:
साईंबाबा केवल एक प्रोफेसर नहीं थे, बल्कि सामाजिक और मानवाधिकार आंदोलनों में भी सक्रिय रूप से शामिल रहे। उन्होंने मानवाधिकारों की वकालत की और नक्सल मुद्दे पर भी अपनी राय रखी। उनका मानना था कि आदिवासी और गरीब समुदायों की आवाज़ को दबाया नहीं जाना चाहिए, और उन्होंने उनके हक के लिए लड़ाई लड़ी।
साईंबाबा का जीवन संघर्ष, शिक्षा और सामाजिक न्याय के प्रति समर्पण की मिसाल है। हालांकि उनके खिलाफ लगाए गए आरोपों ने उनकी छवि को धूमिल किया, लेकिन अदालत द्वारा बरी किए जाने के बाद उन्होंने फिर से सामाजिक मुद्दों पर आवाज उठानी शुरू की थी।
जी. एन. साईंबाबा का निधन न केवल उनके परिवार और दोस्तों के लिए एक व्यक्तिगत क्षति है, बल्कि यह भारतीय शैक्षणिक जगत और मानवाधिकार आंदोलन के लिए भी एक बड़ी क्षति है। उनके जीवन के संघर्ष, कानूनी जंग और जेल में बिताए गए दिन भारतीय न्याय व्यवस्था और मानवाधिकारों की चुनौतियों पर कई सवाल खड़े करते हैं।