महिला सरपंच की बेवजह बर्खास्तगी पर सुप्रीम कोर्ट की कड़ी टिप्पणी: प्रशासनिक स्तर पर भेदभाव दुर्भाग्यपूर्ण


के कुमार आहूजा  2024-10-09 14:38:27



महिला सरपंच की बेवजह बर्खास्तगी पर सुप्रीम कोर्ट की कड़ी टिप्पणी: प्रशासनिक स्तर पर भेदभाव दुर्भाग्यपूर्ण

क्या हमारे समाज में महिलाओं के खिलाफ भेदभाव अब भी प्रशासनिक स्तर पर हावी है? सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में महिला सरपंच के मामले में जो निर्णय दिया, वह इस सवाल का जवाब देता है। यह मामला न केवल महिला सशक्तिकरण पर सवाल उठाता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि कैसे एक चुनी हुई महिला प्रतिनिधि को उसके पद से हटाने का प्रयास किया गया, जिसमें न्यायालय ने स्पष्ट रूप से भेदभाव की बात कही।

विस्तृत रिपोर्ट:

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने मनीषा रविंद्र पनपटिल बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य मामले में एक महत्वपूर्ण फैसला दिया, जिसमें महिला सरपंच मनीषा पनपटिल को बिना किसी पुख्ता प्रमाण के उनके पद से हटाने के प्रशासनिक आदेश को रद्द कर दिया गया। यह मामला महाराष्ट्र के एक गाँव की महिला सरपंच के साथ हुए भेदभाव का था, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने प्रशासनिक अधिकारियों की भूमिका पर गंभीर सवाल खड़े किए।

मामले की पृष्ठभूमि:

मनीषा पनपटिल को उनके गांव की सरपंच चुना गया था, लेकिन गाँव के कुछ निवासियों को यह बात स्वीकार्य नहीं थी कि एक महिला उनके गाँव का नेतृत्व कर रही थी। कोर्ट ने कहा कि यह एक "क्लासिक मामला" था, जहां गाँव के लोग इस सच्चाई को स्वीकार नहीं कर सके कि एक महिला सरपंच बनी है, और उन्हें उसके आदेशों का पालन करना पड़ेगा।

गाँव के कुछ निवासियों ने पनपटिल को उनके पद से हटाने के लिए तमाम कोशिशें कीं। वे किसी तरह का व्यक्तिगत कदाचार साबित नहीं कर सके, इसलिए उन्होंने अन्य तरीकों से उनके खिलाफ आरोप लगाने का रास्ता चुना। गाँव के लोगों ने कलेक्टर से अपील की कि पनपटिल को अयोग्य ठहराया जाए क्योंकि वह अपनी सास के घर में रह रही थीं, जो सरकारी जमीन पर बना था।

कलेक्टर का फैसला और उच्च न्यायालय की भूमिका:

बिना किसी तथ्य की पुष्टि किए, कलेक्टर ने मनीषा पनपटिल को सरपंच पद से अयोग्य घोषित कर दिया। इस निर्णय को डिवीजनल कमिश्नर और बाद में बॉम्बे हाई कोर्ट ने भी सही ठहराया। इसके बाद मनीषा पनपटिल ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी:

सुप्रीम कोर्ट की बेंच, जिसमें जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस उज्जल भुईयां शामिल थे, ने मामले की सुनवाई करते हुए पाया कि प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा महिला सरपंच को हटाने का निर्णय मनमानी और भेदभावपूर्ण था। कोर्ट ने कहा कि किसी निर्वाचित सार्वजनिक प्रतिनिधि को इस तरह से हटाना एक गंभीर मामला है, खासकर जब वह महिला हो और ग्रामीण इलाके से हो। कोर्ट ने यह भी कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि सरकारी अधिकारी इस प्रकार के मामलों में गंभीरता से काम नहीं कर रहे हैं और बिना किसी पुख्ता प्रमाण के महिला प्रतिनिधियों को निशाना बना रहे हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि प्रशासनिक अधिकारियों ने इस मामले में गंभीर चूक की है और यह भेदभाव केवल इस एक मामले तक सीमित नहीं है, बल्कि यह ग्रामीण क्षेत्रों में महिला नेताओं के साथ एक सामान्य प्रवृत्ति बन चुकी है। कोर्ट ने अपने आदेश में कहा, "यह अत्यंत चिंताजनक है कि एक महिला प्रतिनिधि को उसके पद से हटाने के लिए झूठे आरोप लगाए गए और सरकारी अधिकारी बिना किसी जांच के इन आरोपों को मानते हुए उसे हटा देते हैं।"

महिला सशक्तिकरण और भेदभाव:

सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर भी जोर दिया कि भारत जैसे देश, जो महिलाओं को सशक्त बनाने और सभी क्षेत्रों में लैंगिक समानता लाने का प्रयास कर रहा है, में ऐसे भेदभावपूर्ण दृष्टिकोण हमारे लक्ष्यों पर गहरा प्रभाव डालते हैं। कोर्ट ने कहा कि इस तरह के मामलों में जब सरकार खुद महिलाओं के प्रति भेदभावपूर्ण व्यवहार करती है, तो यह उन सभी प्रयासों पर सवाल खड़ा करता है जो हम महिला सशक्तिकरण के लिए कर रहे हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने मनीषा पनपटिल की अयोग्यता के आदेश को निरस्त करते हुए सरकारी अधिकारियों को चेताया कि उन्हें महिलाओं के प्रति संवेदनशीलता विकसित करने की आवश्यकता है। कोर्ट ने कहा कि सरकारी अधिकारियों को एक ऐसा माहौल तैयार करना चाहिए, जहां महिलाएं बिना किसी भेदभाव के अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर सकें।

इस मामले में मनीषा पनपटिल की ओर से वरिष्ठ वकील सुधांशु एस चौधरी और अन्य वकील उपस्थित थे, जबकि विपक्ष की ओर से प्रशांत श्रीकांत केंजले और अन्य वकीलों ने अपनी दलीलें दीं। कोर्ट ने अंततः यह निष्कर्ष दिया कि मनीषा पनपटिल को उनके पद से हटाने का कोई ठोस कारण नहीं था और इस मामले में सरकारी अधिकारियों का रवैया पूरी तरह भेदभावपूर्ण था।


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