दुनिया ने कितना समझाया कौन है अपना कौन पराया ,सब कुछ सीखा हमनें, न सीखी होशियारी !


के कुमार आहूजा कान्ता आहूजा  2024-10-02 06:16:33



दुनिया ने कितना समझाया कौन है अपना कौन पराया ,सब कुछ सीखा हमनें, न सीखी होशियारी !

 

काफ़ी लम्बे समय से मूल लेखन ठप्प सा पड़ा है। अब साहित्य को समर्पित लेखक है ही नहीं। बस कुछ लोग सोशल मीडिया पर इधर- उधर का, किसी और लेखक की रचना का मेटर डालकर वाह- वाही लूट रहे हैं। या फिर स्थानीय पत्रों में छप कर मसीहा बन रहे है। अपने पर मुग्ध, झूठी वाह- वाही से खुश होने वाले लेखक, चाहे कुछ भी करते हो, लेखन तो नहीं करते। पर करे क्या—इन साहित्यकारों, कवियों, शायरों का एक ग्रुप सा है। जिनमे गहरा सम्बन्ध और समन्वय होता हैं और यह तय सा होता है कि हमे एक- दूसरे को ऊपर ही चढ़ाना हैं। एक दूसरे का गुणगान करना है किसी को मसीहा किसी को ख़ुदा बनाना है। ऐसा महिमा - मंडन करना है कि देखने वाले को लगे कि वह एक महान साहित्यकार है। महान कवि है उत्कृष्ठ लेखन का धनी है। ये लोग अखबारो में स्थान पाने के लिए छोटे- मोटे साहित्य सम्मेलन- कवि सम्मेलन- मुशायरा आदि का आयोजन कर लेते है। और उसमे पार्षद- विधायक- मन्त्री तक को ले आते है। ताकि इससे उन्हें अख़बारों में स्थान मिल सके। । ये लोग अक्सर किसी महान लेखक की पुण्य तिथि- जयन्ती पर परिचर्चा का आयोजन कर अख़बार की सुर्ख़ियाँ बटोरने में सफल हो जाते है। लेकिन कभी शाहर विकास की कोई बात नहीं करते। इन्हें सलाम करने को जी चाहता है जब ये लोग अपने जन्म दिन को भी काव्य- गोष्ठी का रूप देकर वाह- वाही लूट लेते है। कई लोग तो अपनी शादी की सालगिरह को भी साहित्य आयोजन के रंग में रंग देते हैं। फिर अखबारो में स्थान पाना इनके बाये हाथ का खेल हैं। इसका अर्थ यह भी नहीं कि सच्चे लेखक जो साहित्य को साधना मानते है उनकी कही कमी है ऐसे लेखकों को लिखने से अब भी सुख और संतोष मिलता है वे उसी के लिए लिखते है प्रचार के लिए नहीं लिखते। एक अंग्रेज लेखक ने लिखा था कि भारत में इतना ज़ायदा अनाचार और लूटपाट है फिर भी भारत जीवित है क्योंकि यहाँ लोग सिद्धांतप्रिय और धर्म पारायण लोग हैं इसी तरह लेखन के क्षेत्र में साहित्य को साधना समझने वाले लेखक अब भी है। जबकि आज ये भाई- लोग जानते नहीं कि लिखना हर किसी के बस की बात नहीं। सब लेखक कवि- शायर नहीं होते, जिसके मन में सवेदना होती है। वो पीड़ा, करुणा को पहचानता हैं। उसके सवेंदशील मन में इससे भावों की निष्पत्ति होती है वही भाव विचार में तब्दील होकर किसी रचना के रूप में अभिव्यक्त होते है। ये लेखक मन ही करता है। यहाँ तो जिधर देखो, लेखक ही लेखक है। कवि और शायर है। साहित्य में झूठी वाह- वाही के दौर में कवि, लेखक, आलोचक तब मरता हैं। जब उसकी ख़राब और बुरी रचना पर कोई मूर्ख, ना- समझ, झूठी वाह- वाही करे। या फिर कोई समझदार उसकी अच्छी और बेहतर रचना पर चुप रहे। लेकिन हमारे यहाँ सब उलट- पुलट है। जहाँ मेंढकों की टर- टर ज़्यादा सुनाई देती है और कोयल की चुपी ही दिखाई देती है। यहाँ तो दो- चार लोग चाय पर बैठे- कवि सम्मेलन हो गया- सार्थक परिचर्चा हो गई और अगले दिन अखबारो में भव्य साहित्य सम्मेलन का समाचार आ गया। बस हम इतने में ही खुश है। अखबारो में छपी- छपाई रचनाओं को संकलित कर किताब छपवा ली और फिर उसका शानदार लोकपर्ण— महिमा मण्डन और शानदार प्रचार- प्रसार ज़्यादातर अब जीवन में यही सब कुछ रह गया है। सोशल मीडिया पर भी अपनी रचनाओं से रूबरू करवाने की होड़ लगी है। लाइक और कमेंट न आए तो चेहरे पर उदासी छा जाती है। और अच्छे कमेंट पर ख़ुशी देखने लायक़ होती है। मूल लेखन गौण हो गया है और सोशल मीडिया पर लेखन मशगूल हो गया हैं। असली लेखक मौन धारण किए हुवे है। वैसे ये तथाकथित लेखक तो उन डाक्टरेट- phd- प्राप्त लेखक के सामने कुछ भी नहीं, जो देश के किसी न किसी दिवंगत प्रोफ़ेसर की पीएचडी पुस्तक में हेरा- फेरी कर टाइटल बदल कर , अपने नाम का टाइटल लगाकर डॉक्टरेट की उपाधि ले लेते है। कंप्यूटर- लैपटॉप पर दिवंगत प्रोफ़ेसरों की अनेकों कर्तिया उपलब्ध है। बस आपको थोड़ा दिमाग़ लगाना है कि कौनसा प्रोफ़ेसर दिवंगत हैं। बस उसकी पुस्तक में थोड़ा हेरा- फेरी करनी है हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा आये। बस अब आपके नाम के आगे ही डाक्टर — लग गया। हम तो वही के वही रहे और लोग लेखन के क्षेत्र में ख़ुदा या ईसा मसीह बन गये। सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी। बस हम वही के वही रह गये। दुनिया ने कितना समझाया कौन है अपना कौन पराया ,सब कुछ सीखा हमनें, न सीखी होशियारी !——- मनोहर चावला


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