जातिगत विषमता और सामाजिक समरसता पर संगोष्ठी: अस्पृश्यता अभिशाप -डॉ. अखिलानंद पाठक
के कुमार आहूजा 2024-09-26 14:03:13
जातिगत विषमता और सामाजिक समरसता पर संगोष्ठी: अस्पृश्यता अभिशाप -डॉ. अखिलानंद पाठक
श्री जैन आदर्श शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय में सामाजिक समरसता पखवाड़ा कार्यक्रम के तहत आयोजित एक संगोष्ठी में अखिल भारतीय साहित्य परिषद, जोधपुर प्रांत के अध्यक्ष डॉ. अखिलानंद पाठक ने एक ज्वलंत मुद्दे पर अपने विचार रखे। इस कार्यक्रम में जातिगत भेदभाव और सामाजिक विषमता पर चर्चा हुई, जिसमें डॉ. पाठक ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि अस्पृश्यता समाज का सबसे बड़ा अपराध है और इसे जड़ से समाप्त करने की आवश्यकता है। उन्होंने सामाजिक विषमता को एक बड़ा अवरोध बताया और इसे दूर करने के लिए मिलजुलकर प्रयास करने पर बल दिया।
आज भी जाति-आधारित भेदभाव से ग्रस्त
संगोष्ठी में भाग लेने वाले प्रशिक्षणार्थी शिक्षकों के बीच, डॉ. पाठक ने कहा कि हमारे समाज में आज भी जाति, धर्म, लिंग, और भाषा के आधार पर विभाजन देखने को मिलता है। स्वतंत्रता के 75 साल बाद भी गाँवों में मंदिर, श्मशान और पानी पीने के स्थान जाति-आधारित भेदभाव से ग्रस्त हैं। उन्होंने प्रश्न उठाया कि ऐसी स्थिति में हिन्दू समाज कैसे प्रगति कर सकता है?
इस कार्यक्रम के दौरान, उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि सामाजिक विषमता को खत्म किए बिना, एक स्वस्थ और समृद्ध समाज की स्थापना असंभव है। इसके लिए नई पीढ़ी को आगे आकर बदलाव लाना होगा।
कानूनी प्रावधान भी आवश्यक:
डॉ. पाठक ने अपने भाषण में यह भी बताया कि स्वतंत्रता के बाद, सामाजिक आंदोलनों ने जातिगत भेदभाव के खिलाफ चेतना फैलाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। फिर भी, ग्रामीण क्षेत्रों में दलितों को घोड़ी से उतारने या उन्हें मंदिर में प्रवेश करने से रोकने जैसी घटनाएं अब भी होती हैं, जो अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण हैं। उन्होंने कहा कि ऐसी घटनाओं को पूरी तरह रोकने के लिए कानूनी प्रावधान जरूरी हैं, जिनका पालन सख्ती से किया जाना चाहिए।
संगोष्ठी में उठाए गए मुद्दे:
♦ जातिगत भेदभाव का प्रभाव: कार्यक्रम में डॉ. पाठक ने कहा कि अस्पृश्यता से बड़ा कोई अपराध नहीं है। समाज में सभी को समान माना जाना चाहिए, न कि जाति, धर्म, लिंग के आधार पर भेदभाव किया जाना चाहिए।
♦ आर्थिक और सामाजिक विषमता: उन्होंने जोर देकर कहा कि हमें मिलकर इस विषमता को दूर करना चाहिए ताकि सभी को समान सामाजिक अधिकार मिल सकें और भारत एक समृद्ध देश के रूप में उभर सके।
♦ सांस्कृतिक पुनर्निर्माण की आवश्यकता: उन्होंने कहा कि सनातन संस्कृति को मजबूत करने के लिए हिन्दू समाज को एकजुट करना और संगठित करना अत्यंत आवश्यक है। ऐसा समाज बनाना होगा जहाँ सभी को समान अधिकार और सम्मान प्राप्त हो।
सकारात्मक बदलाव और भविष्य की उम्मीद:
संगोष्ठी में यह भी चर्चा हुई कि समाज में जागरूकता बढ़ रही है और ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में जातिगत भेदभाव धीरे-धीरे कम हो रहा है। यह बदलाव सामाजिक आंदोलनों और सरकारी प्रयासों की वजह से संभव हो रहा है। हालांकि, अभी भी पूरी तरह से समानता लाने के लिए लंबा सफर तय करना बाकी है।
कार्यक्रम की अध्यक्षता:
महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ. राजेंद्रसिंह माली ने कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए सभी धर्मों के प्रति समान दृष्टिकोण रखने और समाज के सभी वर्गों के प्रति समान व्यवहार की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने प्रशिक्षणार्थियों से आग्रह किया कि वे अपने शिक्षण कार्य में इन मूल्यों का समावेश करें और समाज में जागरूकता फैलाएं।
इस प्रकार, सामाजिक समरसता पखवाड़ा के तहत आयोजित यह संगोष्ठी समाज के विभिन्न पहलुओं पर विचार-विमर्श और सामाजिक विषमता को समाप्त करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम साबित हुई। इस प्रकार के कार्यक्रम न केवल शिक्षकों बल्कि छात्रों के बीच भी एक नई चेतना का संचार करते हैं और समाज में समता लाने के लिए प्रेरित करते हैं।