भारत के इस निर्माण में शक है मेरा— क्योंकि अब शब्दों का महत्व नहीं ,हम रहे या ना रहे मगर शब्द जिंदा रहेंगे


के कुमार आहूजा कान्ता आहूजा  2024-09-24 13:25:13



हम रहे या न रहे, लेकिन शब्द ज़िंदा रहेंगे। 

वो जमाने गये जब खबर/आलेख की मार्फत की गई आलोचना को सुधार के रूप मेँ लिया जाता था। तत्कालीन मुख्य मन्त्री मोहन लाल सुखाडिया अख़बार में छपी आलोचना का स्वागत करते थे। भेरोसिंह शेखावत सरकार के ख़िलाप लिखी न्यूज़ पर सम्बन्धित विभाग से जवाब तलब करते थे। अब वो वक्त भी नहीं रहा कि किसी को आप सुझाव दे सकें। किसी को ये भी नहीं कहा जा सकता कि कई दिनों से सफाई नहीं हुई। सड़क नहीं बनी। सड़क बनी तो खराब बनी। जगह जगह गड्डे है पुलिस व्यवस्था सही नहीं है। दिन- दहाड़े चौरिया हो रही है। दुष्कर्म बढ़ गये है। और पुलिस सिर्फ़ बिना हेलमेट वालो के पीछे पड़ी है। 

ऐसा लिखने और चर्चा करने मात्र से संबन्धित व्यक्ति, नेता, जन प्रतिनिधि, अधिकारी, सफाई कर्मचारी के नाराज होने का अंदेशा बना रहता है। अंदेशा ही नहीं रहता सच मेँ सब नाराज भी हो जाते हैं। नाराजगी दिखाई देती है; महसूस होती है। और वर्तमान समय ऐसा है कि कोई भी व्यक्ति किसी को नाराज करके किसी प्रकार का रिस्क नहीं लेना चाहता। हमने तो जीवन में सच लिखकर रिस्क ही रिस्क ली है। सच लिखा देखकर कभी मन्त्री ने बदले की भावना से परेशान किया और कभी क्लकटर ने। यहाँ तक अपने समाज ने भी। एक बार गलती से लिख दिया था कि हमारा संगठन त्योहार मनाने के अलावा कुछ नहीं करता। समाज के पदाधिकारियों ने रिश्ते ही तोड़ दिये। 

अकेले मेँ चाहे कोई नागरिक, संगठन का पदाधिकारी, राजनीति से जुड़ा व्यक्ति सिस्टम की कितनी भी आलोचना करे, सार्वजनिक रूप से उसकी जय-जय कार ही होती है । लेकिन उनके बारे मेँ क्या लिखूँ और क्यों उनको कहूँ; लिखते ही नाराज हो जायेंगे। कहूँ तो मुंह फुला लेंगे। कोतवाल तो एसपी के नाम से सरे आम धमकाने वाले से कोई सवाल नहीं करते; पता नहीं दोनों की आपस मेँ ऐसी क्या यारी है। एसपी का नाम बदनाम हो तो हो। पुलिस को क्या? 

शहर की कानून व्यवस्था हो या ट्रैफिक, सब अस्त व्यस्त है। पुलिस वाले दिखावे के तौर पर कभी कभार नज़र आते हैं या तो हेलमेट का चालान करने या फिर हथाई करने। अब ये बात एसपी को कहूँ तो पक्का है संबन्धित पुलिस वाले खफा हो जायेंगे। एसपी को तो मेरे जैसा अदना पत्रकार ये भी नहीं कह सकता कि साहब! आप शाम को सिविल ड्रेस मेँ चुपके से इस क्षेत्र का दौरा करो तो सब स्पष्ट हो जायेगा। किन्तु एसपी हिमालय जितने ऊँचे और ख़ाकसार राई समान। किसी की नाराजगी लेने का हौसला जन-जन मेँ ही नहीं है तो ख़ाकसार लिख कर क्यों रिस्क ले। इसलिये खामोश है। कलम चलाने की हिम्मत नहीं होती। अब न जाने क्यों लगता है कि कलम पर मेरी पकड़ ढीली पड़ गई हैं। अब मैं बची खुची अपनी ज़िन्दगी को एक नया मोड़ दूँगा, सिस्टम से सवाल करना बस अब छोड़ दूँगा। 

सिस्टम ने अपने ढंग से और अपनी रफ्तार से काम करना है; बदलना है नहीं। ख़ाकसार लिख कर किसी को क्यों नाराज करे। छोटे से छोटे शब्दों मेँ कहूँ तो सड़कों की ऐसी की तैसी हुई पड़ी है, लेकिन ये बात लिखकर किसी को नाराज नहीं कर सकता। जब पूरी जनता ही खामोश है तो फिर ख़ाकसार अकेला ही क्यों ताकतवर व्यक्तियों की नाराजगी मोल ले। बड़े लोगों के लिए तो सब कुछ उनके अहम और मूंछ का सवाल बन जाता है; निरीह जनता की ना तो मूंछ है और ना कोई अहम! ऐसी मेँ आम आदमी की क्या मजाल कि किसी को नाराज करे। इसलिये जो हो रहा है, उसी पर फूल चढ़ाये जाओ। इन पंक्तियों का लेखक भी यही करने की कोशिश कर रहा है। सभी की जय जय कार करना ही मूल मंत्र अपनाने की दिशा की ओर बढ़ रहा है। 

ट्रैफिक व्यवस्था दिनों-दिन बिगड़ रही है, लेकिन किस जन प्रतिनिधि ने आने वाले सालों के लिए संबन्धित अधिकारियों के साथ बैठक कर कोई प्लान बनाया! सवाल ही पैदा नहीं होता! रेल फाटको की समस्या का आज तक कोई समाधान नहीं। कोई सवाल करे तो सिस्टम के नाराज होने का डर! जब सभी खामोश है तो ख़ाकसार लिख कर क्यों किसी को नाराज करे। जनता हर मुद्दे पर खामोश है। कोई राजनीतिक दल बोलता भी है तो जनता की बात तो छोड़ो, उसी पार्टी के पूरे नेता, कार्यकर्ता सामने नहीं आते। कारण यही कि किसी को नाराज क्यों करें! 

जनता तो मतदान के दिन ही जागृत अवस्था मेँ आती है। उससे पहले किसी से कोई सवाल नहीं। जीवन के लिए जरूरी मूल भूत आवश्यकताओं का भट्ठा बैठ जाये तब भी सभी खामोश रहेंगे...क्यों! क्योंकि कोई व्यक्ति किसी भी सरकारी कर्मचारी, पार्षद, सभापति, विधायक और सांसद मन्त्री को नाराज नहीं करना चाहता। इसलिये ख़ाकसार ही क्यों लिख कर या बोल कर किसी को नाराज करे। वैसे भी ये शहर.....शहर है। जहाँ के रसगुल्ले- कचौड़ी और समोसा विख्यात हैं। स्वाद लीजिए और कवि सम्मेलनों- गोष्ठियों- पुस्तक लोकपर्णे समारोह- सम्मान समारोह का आनन्द लीजिए। क्या रखा हैं रेल फाटक हटवाने - सड़के बनवाने और नगर को सुन्दर बनाने में। मैं नहीं रहूँगा, कोई भी नहीं रहा। दूसरो की तरह मैं भी ज़रूर मरूँगा, लेकिन पूरा नहीं, क्योंकि मेरे शब्द जिंदा रहेंगे, बोलेंगे वो। चेताने, जगाने, झिंझोड़ने की कोशिश करेंगे लेकिन अफ़सोस फिर भी यह शहर न जग पायेगा। क्योंकि हम सब ने ऊपर वाले के भरोसे अपने शहर को छोड़ रखा हैं।  लेखक,विचारक, चिंतक सम्पादक बीकानेर एक्सप्रेस—मनोहर चावला  पूर्व pro  की कलम से सटीक,,,, 

भारत के इस निर्माण में शक है मेरा— क्योंकि अब शब्दों का महत्व नहीं रहा।


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